Wednesday, October 16, 2013

टिहरी बाँध परियोजना का विवाद



टिहरी बाँध - Tehri Dam 
यदि टिहरी बाँध बन गया तो (Rajiv Dixit 1995):
बी एस नेगी -टिहरी का असल नाम त्रिहरि है। तीन नदियों का मिलन। यहां पर भागीरथी, भिलंगना और घृत गंगा का संगम था। स्कंदपुराण के केदारखण्ड में इसे गणेश प्रयाग और धनुषतीर्थ कहा गया है। इसे टिरी और बाद में टिहरी नाम दिया गया। टिहरी 1815 में अस्तित्व में आयी। इसे राजा सुदर्शन शाह ने बसाया।

टेहरी विकास परियोजना का एक प्राथमिक बाँध है जो उत्तराखण्ड राज्य के टिहरी में स्थित है। यह बाँधगंगा नदी की प्रमुख सहयोगी नदी भागीरथी पर बनाया गया है। टिहरी बाँध की ऊँचाई २६१ मीटर है जो इसे विश्व का पाँचवा सबसे ऊँचा बाँध बनाती है। इस बाँध से २४०० मेगा वाट विद्युत उत्पादन, २७०,००० हेक्टर क्षेत्र की सिंचाई और प्रतिदिन १०२.२० करोड़ लीटर पेयजल दिल्ली, उत्तर प्रदेश एवँ उत्तराखण्ड को उपलब्ध कराना प्रस्तावित है।

हिमालय क्षेत्र में बन रहा टिहरी बाँध शुरू से ही विवादों के घेरे में रहा हैं। योजना आयोग द्वारा 1972 में टिहरी बाँध परियोजना को मंजूरी दी गई। जैसे ही योजना आयोग ने इस परियोजना को मंजूरी दी, टिहरी और आस-पास के इलाके में बाँध का व्यापक विरोध शुरू हो गया। कई शिकायते इस संबंध में केंद्र सरकार तक पहुंची। संसद की ओर से इन शिकायतों की जांच करने के लिए 1977 में पिटीशन कमेटी निर्धारित की गई। 1980 में इस कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमति इंदिरा गाँधी ने बाँध से जुड़े पर्यावरण के मुद्दों की जांच करने के लिए विशेषज्ञों की समिति बनाई। इस समिति ने बाँध के विकल्प के रूप में बहती हुई नदी पर छोटे-छोटे बाँध बनाने की सिफ़ारिश की। पर्यावरण मंत्रालय ने विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट पर गंभीरता पूर्वक विचार करने के बाद अक्टूबर, 1986 में बाँध परियोजना को एकदम छोड़ देने का फैसला किया।

अचानक नवंबर, 1986 में तत्कालीन सोवियत संघ सरकार ने टिहरी बाँध निर्माण में आर्थिक मदद करने की घोषणा की। इसके बाद फिर से बाँध निर्माण कार्य की सरगर्मी बढ़ने लगी। फिर बाँध से जुड़े मुद्दों पर मंत्रालय की ओर से समिति का गठन हुआ। इस समिति ने बाँध स्थल का दौरा करने के बाद फरवरी, 1990 में रिपोर्ट दी कि टिहरी बाँध परियोजना पर्यावरण के संरक्षण की दृष्टि से बिलकुल अनुचित हैं। मार्च, 1990 में एक उच्च स्तरीय समिति ने बांध की सुरक्षा से जुड़े हुए मुद्दों का अध्ययन किया। जुलाई, 1990 में मंत्रालय ने बांध के निर्माण कार्य को शुरू करने से पूर्व सात शर्तों को पूरा करने के लिए कहा। इन सात शर्तों को पूरा करने के लिए समय सीमा निर्धारित की गयी।

लेकिन इस समय सीमा के बीत जाने के बावजूद आज तक एक भी शर्त पूरी नहीं की गई। अब बांध का निर्माण कार्य बिना शर्त पूरा किए शुरू कर दिया गया है। बांध का निर्माण कार्य करने वाली एजेंसियो को पर्यावरण मंत्रालय द्वारा कई बार याद दिलाया गया, लेकिन बांध निर्माण से जुड़ी हुई कोई भी शर्त नहीं मनी गयी। अगस्त, 1991 में इसी बात को लोकसभा में चेतावनी के रूप में उठाया गया, जिस पर काफी बहस हुई। कई सांसदो ने बांध क्षेत्र में भूकम्प की संभावनाओं पर चिंता व्यक्त की। अक्टूबर, 1991 में उत्तरकाशी में भूकम्प आया, जिससे जान-माल की काफी हानि हुई। इससे यह भी सिद्ध हुआ कि बांध क्षेत्र में भूकम्प की आशंकाए निरधार नहीं हैं।

टिहरी बांध बनाने से 125 गाँव डूबेंगे और 2 लाख से अधिक लोगो को विस्थापित होना पड़ेगा। बॉटनीकल सर्वे ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार बांध बनने से पेड़-पौधो की 462 प्रजातियाँ लुप्त हो जाएगी। इनमें से 12 प्रजातियाँ अत्यंत दुर्लभ मानी जाती हैं। बांध के बनने से 70 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में 20 हजार हेक्टेयर उपजाऊ भूमि पूरी तरह से डूब जाएगी। 1993 में पर्यावरण मंत्रालय द्वारा प्रधानमंत्री को भेजे गये एक नोट में कहा गया है कि यदि यह बांध टूट जाता हैं तो यह विशाल जलाशय 22 मिनट मे खाली हो जाएगा, 63 मिनट में ऋषिकेश 260 मीटर पानी में डूब जाएगा।

अगले बीस मिनट में हरिद्वार 232 मीटर पानी के नीचे होगा। बाढ़ का यह पानी विनाश करते हुए बिजनौर, मेरठ, हापुड़ और बुलंदशहर को 12 घंटो में 8.5 मीटर गहरे पानी में डुबो देगा। करोड़ो लोगों के जान-माल का जो नुकसान होगा, वह बांध की लागत से कई गुना अधिक होगा। दूसरा खतरा यह है कि यह बांध चीन की सीमा से लगभग 100 मील की दूरी पर हैं। चीन के साथ किसी संघर्ष में यदि इस बांध को दुश्मनों द्वारा तोड़ दिया जाए तो भी विनाश का यही दृश्य उपस्थित हो सकता हैं जो भूकम्प के आने पर होगा। जल प्रलय की यह भयावह आशंका रूह को कंपा देती हैं। अगस्त, 1975 में चीन के हिनान प्रांत में इसी तरह का बांध टूटा था जिसके जल प्रलय मे 2 लाख 30 हजार लोगों की मौत हुई।


टिहरी बांध के निर्माण में व्याप्त भ्रष्टाचार आंखे खोल देने वाला हैं। 1986 में भारत के महानियंत्रक लेखा परीक्षक श्री टी.एन. चतुर्वेदी द्वारा दी गई रिपोर्ट में बांध के बेतहाशा बढ़ते हुए खर्चे की ओर सरकार का ध्यान दिलाया गया। 1972 में इस परियोजना की लागत 198 करोड़ थी, लेकिन आज यह बढ़कर 8000 करोड़ रुपये से भी अधिक हो चुकी हैं। इसका मुख्य कारण मुद्रास्फीति नहीं, बल्कि इसमें होने वाला भ्रष्टाचार हैं। क्योंकि 1972 से 1994 तक मुद्रास्फीति की दर उस रफ्तार से कतई नहीं बढ़ी हैं, जिस रफ्तार से बांध की लागत को बढ़ाया गया हैं श्री टी.एन. चतुर्वेदी जी ने स्पष्ट कहा था कि, “यह बांध परियोजना घाटे का सौदा हैं। ”

हिमालय का पर्वतीय क्षेत्र काफी कच्चा हैं। इसलिए गंगा में बहने वाले जल में मिट्टी की मात्रा अधिक होती हैं देश की सभी नदियों से अधिक मिट्टी गंगा जल में रहती हैं। अत: जब गंगा के पानी को जलाशय मे रोका जाएगा तो उसमें गाद भरने की दर देश के किसी भी अन्य बांध में गाद भरने की दर से अधिक होगी। दूसरी ओर, टिहरी में जिस स्थान पर जलाशय बनेगा वहाँ के आस-पास का पहाड़ भी अत्यंत कच्चा हैं। जलाशय में पानी भर जाने पर पहाड़ की मिट्टी कटकर जलाशय में भरेगी। अर्थात गंगा द्वारा गंगोत्री से बहाकर लायी गयी मिट्टी तथा जलाशय के आजू-बाजू के पहाड़ से कटकर आयी मिट्टी दोनों मिलकर साथ-साथ जलाशय को भरेंगे। गाद भरने की दर के अनुमान के मुताबिक टिहरी बांध की अधिकतम उम्र 40 वर्ष ही आँकी गई हैं। अत: 40 वर्षो के अल्प लाभ के लिए करोड़ों लोगों के सिर पर हमेशा मौत की तलवार लटकाए रखना लाखों लोगों को घर-बार छुड़ाकर विस्थापित कर देना एवं भागीरथी और भिलंगना की सुरम्य घाटियो को नष्ट कर देना पूरी तरह आत्मघाती होगा।

टिहरी बांध से होने वाले विनाश में एक महत्वपूर्ण पहलू गंगा का भी हैं। हिन्दू शास्त्रों के अनुसार गंगा के बहते हुए जल में ही श्राद्ध और तर्पण जैसे धार्मिक कार्य हो सकते है लेकिन बांध बन जाने से गंगा का प्रवाह जलाशय में कैद हो जाएगा हिन्दू शास्त्रों के अनुसार गंगा का जल जितनी तेज गति से बहता है उतना ही शुद्ध होता हैं। यही गतिमान जल गंगा में बाहर से डाली गई गंदगी को बहाकर ले जाता हैं। गंगा भारत की पवित्रतम् नदी तो हैं ही, हमारी सभ्यता-संस्कृति की जननी भी हैं। प्रत्येक भारतवासी के मन में गंगा में एक डुबकी लगाने या जीवन के अंतिम क्षणों में गंगा जल की एक बूंद को कंठ से उतारने की ललक रहती हैं। जब भी कोई भारतवासी किसी अन्य नदी में स्नान करता हैं तो सर्वप्रथम वह गंगा का स्मरण करता हैं। यदि वह गंगा से दूर रहता हैं तो मन में सदैव गंगा में स्नान करने की इच्छा रखता हैं। जब वह अपने मंतव्य में सफल हो जाता हैं तो गंगा के परम पवित्र जल में स्नान करने के पश्चात अपने साथ गंगा जल ले जाना नहीं भूलता और घर जाकर उसे सुरक्षित स्थान पर रख देता हैं। जब भी घर में कोई धार्मिक अनुष्ठान हो तो इसी गंगा जल का प्रयोग होता हैं।

राष्ट्र की एकता और अखंडता में गंगा का बहुत महत्वपूर्ण योगदान हैं। शास्त्रों के अनुसार गंगोत्री से गंगा जल ले जाकर गंगा सागर में चढ़ाया जाता हैं और फिर गंगा सागर का बालू लाकर गंगोत्री में डाला जाता हैं। इस पूरी प्रक्रिया में व्यक्ति को गंगोत्री से गंगासागर और फिर गंगासागर से गंगोत्री तक की यात्रा करनी होती हैं। देश के एक सिरे से दूसरे सिरे तक की यह यात्रा ही राष्ट्रीय एकता के उस ताने-बाने को बुनती हैं जिसमें देश की धरोहर बुनी हुई हैं। गंगा हमारे राष्ट्र की जीवनधारा हैं और इसे रोकना राष्ट्र के जीवन को रोकने जैसा हैं। 1914-16 में स्व. पंडित मदन मोहन मालवीय जी ने अंग्रेज़ो द्वारा भीमगौड़ा में बनाए जाने वाले बांध के खिलाफ आंदोलन किया था। इस आंदोलन से पैदा हुए जन आक्रोश के कारण बाँध बनाने का फैसला रद्द कर दिया था। मालवीय जी ने अपनी मृत्यु से पूर्व श्री शिवनाथ काटजू को लिखे पत्र में कहा था कि “गंगा को बचाए रखना।”



 - राजीव दीक्षित 

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